बचपन से हम थे देख रहे,
कोई इंजिनियर था बन रहा,
कोई डॉक्टर था बन रहा,
आई.ए.एस का तो फिर रौब ही कुछ और,
बस पा ले एक मुकाम हम,
ऐसा कुछ था वह दौर!
भेड़ चाल में चलते-चलते,
कशमोकश में जकड़े-जकडे,
ख्याल था वो आ रहा,
एक सम्मान समाज का,
ख्वाब था वो छा रहा,
एक सतत बदलाव का!
उन्ही खयालों को पकडे-पकडे,
उसी कशमोकश में जकड़े-जकड़े,
हम थे धुंध रहे,
अनजान मंजिल का वो रास्ता! प्रेरणा थी दिल में एक,
पर तस्वीर वो धुंधली थी,
मन मे पर विश्वास लिए,
मंजिल हमें वो ढूंढनी थी!
एसा नहीं हमें मिला नहीं,
वो मुकाम जिसे हम थे ढूंढ रहे,
देर आए, दुरुस्त आए,
हम एक मंजीर पर थे पहुच रहे!
अब जब वो उम्मीद दिख रही है,
उसमुकाम को पाने की,
चाह है इस सफ़र को बरक़रार हम रखेंगे,
इस राह में, इस रास्ते में, कदमताल हम करते रहेंगे !
- आस्था बहुगुणा